ज़ब्त-ए-दिल ने भी अजब स्वाँग रचा रक्खा है जैसे सच-मुच ही कोई राज़ छुपा रक्खा है इश्क़ ने वाक़ई ए'जाज़ दिखा रक्खा है दिल से वहशी को भी रस्ते से लगा रक्खा है दिल की हर बात को तंग आ के तग़ाफ़ुल से तिरे इत्तिफ़ाक़ात-ए-ज़माना पे उठा रक्खा है आँख वो ख़ुद कोई हुश्यार नहीं है यारो लेकिन उस ने मुझे दीवाना बना रखा है ये भी क्या कम है के उस शोख़ ने बे-मेहरी को इश्वा-ओ-नाज़ के पर्दे में छुपा रक्खा है वो अभी आएँगे हम को भी ख़बर है ऐ दिल बार-हा तू ने ये अफ़्साना सुना रक्खा है ख़ूब वाक़िफ़ हूँ रक़ीबों की तन-आसानी से रास्ता घर का तिरे सब को बता रक्खा है