यारा नहीं जिन में दुश्मनी का दा'वा न करें वो दोस्ती का उनवाँ न मिले जो ख़ुद-सरी का खुलता नहीं बाब आगही का उन को था ख़याल दोस्ती का वो दौर गुज़र चुका कभी का दस्तूर नहीं कुछ इस सदी का कब दौर न था रवा-रवी का ऐ दोस्त गिला न कर किसी का एहसास है ये भी कमतरी का वो चाँद उतर चुका है दिल में मुहताज नहीं जो रौशनी का बोहतान है ये कि जी रहा हूँ इल्ज़ाम है मुझ पे ज़िंदगी का जीने को तो जी रही है दुनिया जीना है मगर किसी किसी का जिस वक़्त सहर क़रीब होगी पूछेंगे मिज़ाज चाँदनी का वो पूछ रहे हैं मुझ से 'तारिक़' क्या हाल है तेरी शाइ'री का