जादा-ए-रास्ती ही काफ़ी है मुझ को ये रौशनी ही काफ़ी है इस जहाँ में गुज़ारने के लिए मुख़्तसर ज़िंदगी ही काफ़ी है तुझ को फ़र्ज़ानगी मुबारक हो मुझ को दीवानगी ही काफ़ी है क्या ज़रूरत है दुश्मनों की मुझे आप की दोस्ती ही काफ़ी है क्या करूँगा मैं सीम-ओ-ज़र ले कर दौलत-ए-बे-ख़ुदी ही काफ़ी है दिल के आँगन में रौशनी के लिए फ़िक्र की ताज़गी ही काफ़ी है इस चमन में ख़िज़ाँ-नसीबों को इक कली अध-खिली ही काफ़ी है लश्कर-ए-ग़म से जीतने के लिए चंद-रोज़ा ख़ुशी ही काफ़ी है आरज़ू के निहाल को 'शाहिद' आँसुओं की नमी ही काफ़ी है