जहान-ए-आम को यकसर फ़रेब देता है वो ग़म-ज़दा हो तो हँस कर फ़रेब देता है कुछ उस की तर्ज़-ए-अदा भी कमाल है कुछ वो नज़र नज़र से मिला कर फ़रेब देता है मैं ऐसे माहिर-ए-फ़न का मुरीद हूँ जो मुझे मिरे गुमान से बढ़ कर फ़रेब देता है मिटा गई है मुझे इक निगाह-ए-नाज़ तो क्या बड़े-बड़ों को ये मंज़र फ़रेब देता है हम अहल-ए-दिल भी इसी पर यक़ीन करते हैं हमें ये दिल जो कि अक्सर फ़रेब देता है मैं इस लिए भी तिरा एहतिराम करता हूँ तू मुझ को मुझ से भी बेहतर फ़रेब देता है 'अमर' ये उस का करम है कि वो इक अहल-ए-कमाल अगरचे दे भी तो कह कर फ़रेब देता है