जहान-ए-इश्क़ अब सूना पड़ा है तुम्हें पा कर के भी खोना पड़ा है उदासी हो गई मुझ पर मुसल्लत तुम्हें भी रात-दिन रोना पड़ा है पड़ा रहता था इक कोने में हर दम मगर अब मुझ में ही कोना पड़ा है भगाने के लिए ख़्वाबों से तुम को तसव्वुर में तुम्हें छूना पड़ा है यही क्या कम क़यामत है मिरी जाँ तुम्हें चूमे बिना सोना पड़ा है मैं दो से एक फिर ज़ीरो हुआ हूँ मगर ये इश्क़ क्यों दूना पड़ा है तिरे दामन के दाग़ों को मुझे जाँ जिगर के ख़ूँ से क्यों धोना पड़ा है ग़मों का बोझ था यकसाँ सभी पर मगर 'काशिफ़' को ही ढोना पड़ा है