ज़ेहन ज़िंदा है मगर अपने सवालात के साथ कितने उलझाओ हैं ज़ंजीर-ए-रिवायात के साथ कौन देखेगा यहाँ दिन के उजालों का सितम ये सितारे तो चले जाएँगे सब रात के साथ जाने किस मोड़ पे मंज़िल का पता भूल गए हम कि चलते ही रहे गर्दिश-ए-हालात के साथ वक़्त करता है भला किस से यहाँ हुस्न-ए-सुलूक वो भी इस दौर में क़ानून-ए-मकाफ़ात के साथ वो तो ख़ंजर था गले जिस ने लगाया हम को वर्ना पेश आता है अब कौन मुदारात के साथ हादसे हैं तो उन्हें पेश भी आना है ज़रूर वो भी उस शोख़ से तक़रीब-ए-मुलाक़ात के साथ कौन सुनता है यहाँ दिल की कहानी 'तनवीर' वो भी ख़ुश्बूओं के मौहूम इशारात के साथ