जहाँ में अब किसी का भी किसी को डर नहीं रहा ख़ुदा ख़ुदा नहीं रहा बशर बशर नहीं रहा किसी के दर्द का यहाँ इलाज ही नहीं कोई दवा ही क्या दुआ में भी कोई असर नहीं रहा मशीन बन गया है आदमी ग़म-ए-मआ'श में धड़कता दिल पिघलता उस का अब जिगर नहीं रहा शजर शजर झुलस गया अलम की तेज़ धूप में जो हम को छाँव दे कहीं कोई शजर नहीं रहा बिके हुए हैं सज्दे अब हर आस्ताँ है इक दुकाँ ख़ुलूस जिस जगह झुके वो संग-ए-दर नहीं रहा गुनाह क्या सवाब क्या जब आ गया तिरे हुज़ूर सज़ा जज़ा का 'सेहर' को कोई ख़तर नहीं रहा