जहान रास मुझे आ गया जहान को मैं सो मोड़ता हूँ अब अपनी तरफ़ कमान को मैं मिरी ज़मीन को जैसे उसी ने छीना हो कभी कभी तो यूँ तकता हूँ आसमान को मैं यक़ीन कर कि तिरी बे-रुख़ी से पहले भी कभी भरा नहीं रखता था फूल-दान को मैं ज़रा सी धूप ज़रूरी है हर किसी के लिए यही बता नहीं पाता हूँ साएबान को मैं उस एक लम्हे मुझे याद क्यों नहीं रहता अधूरा छोड़ भी सकता हूँ इम्तिहान को मैं ख़ुदा करे कोई किरदार ऐसा मिल जाए कि दास्तान मुझे खींचे दास्तान को मैं 'अमित-बजाज’ ये फ़े’लुन मफ़ा’इलुन क्या है नहीं समझता हुनर ऐसी खींच-तान को मैं