जहान-ए-बे-सबाती में तमाशा-ए-जहाँ कब तक चमकते मेहर-ओ-मह तारे ज़मीन-ओ-आसमाँ कब तक शब-ए-ग़म में तजल्ली पर न इतरा ऐ दिल-ए-मुज़्तर सितारों की ये चश्मक और रक़्स-ए-कहकशाँ कब तक समुंदर की ख़मोशी एक तूफ़ाँ साथ लाएगी किसी ना-मेहरबाँ की ये निगाह-ए-मेहरबाँ कब तक बढ़ाए जा क़दम तू बढ़ के सरगर्म-ए-अमल हो जा यूँही तकता रहेगा सू-ए-गर्द-ए-कारवाँ कब तक लगा कर आग ख़ुद ही क्यों न बद-बख़्ती पे मैं रो लूँ जलाएँ आशियाँ को मेरे आख़िर बिजलियाँ कब तक ये बेहतर है फ़लक होना है जो कुछ अब वो हो जाए रहूँ तेरी बला-ए-ना-गहाँ के दरमियाँ कब तक कमाल-ए-ज़ब्त पर भी अश्क-ए-ग़म आँखों से बह निकले भला रोके से रुक सकती थी ये सैल-ए-रवाँ कब तक फ़ज़ा-ए-ज़ीस्त पर तारी है 'अख़्तर' यास का आलम न जाने मतला-ए-उम्मीद होगा ज़रफ़िशाँ कब तक