वो इक निगाह जो बे-इख़्तियार करती है दिलों को दर्द का उमीद-वार करती है वही सुलूक मिरे दिल से तुम भी क्यों न करो चमन के साथ जो फ़स्ल-ए-बहार करती है निगाह-ए-शौक़ को दूँ कौन-सी सज़ा या-रब ये दिल का राज़-ए-निहाँ आश्कार करती है समझ सका न कोई फ़ितरत-ए-मोहब्बत को ये उस को फूँकती है जिस को प्यार करती है मुझे तो चैन नहीं है कशाकश-ए-ग़म से वो शय है क्या जो तुम्हें बे-क़रार करती है न आए तुम तो शिकायत मुझे नहीं लेकिन ये चाँदनी जो मुझे शर्मसार करती है ग़ुरूर-ए-इश्क़ बहुत हो चुका 'अदीब' बहुत वो बज़्म अब भी तिरा इंतिज़ार करती है