जहान-ए-गिर्या जो आदम को ख़ुल्द का दुख है इसी लिहाज़ से धरती हवा ख़ला दुख है कभी फ़िराक़ की रातों में आइना देखूँ तो ख़ुद से कहता हूँ देखो ये आइना दुख है शदीद रोना तो अंदर का हब्स घुटना है खिचाव हँसने से पड़ता है क़हक़हा दुख है ज़मीन गोल है मेरी वफ़ात ने खोला कि दोस्त अम्मी से कहते थे ये बड़ा दुख है मैं बाँझ पेड़ हूँ साया न फल मिरे ऊपर मुझे समय दे कभी पूछ मुझ को क्या दुख है तमाम ख़ुशियाँ इकट्ठी थीं एक दुख के गिर्द उन्हें धकेल के चीख़ा हटो मिरा दुख है मैं ख़ुद से जंग में हारा हुआ सिपाही हूँ कि जिस का राब्ता नंबर अता-पता दुख है