ख़ामोशी की रम्ज़ सुझा बोल रहा है बोलता जा टेक लगा हम ऐसों से दीवारों का मान बढ़ा ख़ाक हुए दरबारों की यकताई का गीत सुना चीख़ सुनी दरवाज़ों की जैसे कहते हों मत जा हब्स की ख़ातिर कमरे में ज़िंदानी का इस्म पढ़ा हाथ कटे इस बस्ती में कुर्ता लीर-ओ-लीर हुआ रोना है तो खुल कर रो रोने वाली शक्ल बना इश्क़ हुआ बीमारी से आसेबों का रिज़्क़ खुला