ज़हे ज़िंदा-दिली ग़म की गुल-अफ़्शानी नहीं जाती कुछ ऐसे अश्क भी हैं जिन की ताबानी नहीं जाती तलातुम-ख़ेज़ मौजों का तलातुम थम गया लेकिन जो बरपा है किनारों पर वो तुग़्यानी नहीं जाती मिरे रहबर मुझे ये कौन-सी मंज़िल पे ले आए कि मुझ से सूरत-ए-मंज़िल भी पहचानी नहीं जाती हज़ारों आशियाने फूँक डाले सेहन-ए-गुलशन में मगर बर्क़-ए-सितम की शो'ला-अफ़्शानी नहीं जाती पिलाता ही रहा साक़ी हमें तू ज़हर के साग़र तिरे रिंदों की फिर भी रिंद-सामानी नहीं जाती न जाने क्या हुआ 'अरमान' असर अपनी दुआओं का दुआएँ करते हैं लेकिन परेशानी नहीं जाती