ज़िंदगी दाव पे हर आन लगी रहती है दिल की बाज़ी में सदा जान लगी रहती है हैं तिरे म'अरका-आरा कि तमाशाई हैं भीड़ कैसी सर-ए-मैदान लगी रहती है कोई बिल्क़ीस नज़र आए न आए फिर भी खोज में रूह-ए-सुलैमान लगी रहती है ख़ल्क़ उम्माल से नालाँ है मगर यारों को फ़िक्र-ए-ख़ुश-नूदी-ए-सुल्तान लगी रहती है बख़्त-साज़ान-ए-रेआया में कशिश है कितनी हर नज़र जानिब-ए-ऐवान लगी रहती है क्यों बदलता नहीं तू इस को तवानाई में आग तो ऐ दिल-ए-हैरान लगी रहती है आदमी शौक़ से फ़ारिग़ नहीं रहता 'गुलज़ार' धुन कोई ज़ीस्त के दौरान लगी रहती है