ज़िंदगी नग़्मा-सरा हो जाए दर्द की कोई दवा हो जाए हर घड़ी हाथ हों बुलंद मिरे यही मक़्बूल दुआ हो जाए आह मज़लूम की जब भी निकले अर्श तक हश्र बपा हो जाए मुंतज़िर लोग तो रहते हैं सदा सर पे कब ज़िल्ल-ए-हुमा हो जाए बहर-ए-अफ़्कार में ग़लताँ है बशर सोच हद से न सिवा हो जाए