ज़िंदगी शाम को दफ़्तर से निकल आती है और उदासी मिरे अंदर से निकल आती है चादरें जितनी भी तब्दील करूँ तेरे बाद तेरी ख़ुशबू मिरे बिस्तर से निकल आती है मैं हूँ वो आग कि जिस आग को चखने के लिए जल-परी चल के समुंदर से निकल आती है जिस क़दर आप बताते हैं मुझे सहरा में इतनी वीरानी मिरे घर से निकल आती है जब भी होती है चराग़ों से मुलाक़ात मिरी लहलहा कर मिरी लौ सर से निकल आती है हज़रत-ए-हुर ने निकल कर ये दिखाया हम को रौशनी रात के लश्कर से निकल आती है शाम के वक़्त समुंदर में लहू घुलते ही तेरी सूरत मिरे साग़र से निकल आती है कहाँ दबती है दबाने से मोहब्बत 'अरमान' ये वो कोंपल है जो पत्थर से निकल आती है