ज़िंदगी तुझ से हमें अब कोई शिकवा ही नहीं अब तो वो हाल है जीने की तमन्ना ही नहीं इंतिहा इश्क़ की है आइना-ए-दिल पे मिरे मा-सिवा उस के कोई अक्स उभरता ही नहीं मेरे अफ़्कार को देती है जिला उस की जफ़ा ग़म न होते तो ये क़िर्तास सँवरता ही नहीं मुझ को हक़ बात के कहने में तअम्मुल क्यूँ हो मैं वो दीवाना हूँ जो दार से डरता ही नहीं हम कि ख़्वाबों से बहल जाते थे लेकिन अफ़्सोस जागती आँखों से तो ख़्वाब का रिश्ता ही नहीं मैं कि सूरज हू इधर डूबा उधर उभरूँगा मैं वो तैराक नहीं हूँ जो उभरता ही नहीं वक़्त के साथ बदलने लगा हर इक 'शफ़ीक़' जैसे अब मुझ से किसी का कोई रिश्ता ही नहीं