ज़िंदगी यूँ तो गुज़र जाती है आराम के साथ कश्मकश सी है मगर गर्दिश-ए-अय्याम के साथ रिफ़अतें देखती रह जाती हैं उस की पर्वाज़ वो तसव्वुर कि है वाबस्ता तिरे नाम के साथ मिल ही जाएगी कभी मंज़िल-ए-मक़्सूद-ए-सहर शर्त ये है कि सफ़र करते रहो शाम के साथ दाम-ए-हस्ती है ख़ुश-आइंद भी दिलकश भी मगर उड़ते जाते हैं गिरफ़्तार उसी दाम के साथ जब किसी लम्हा-ए-दौराँ को टटोला हम ने रू-ए-आग़ाज़ नज़र आया है अंजाम के साथ उन रिवायात को दोहराते हैं हम अज़-सर-ए-नौ वो जो मंसूब हैं सदियों से तिरे नाम के साथ हर्फ़ आए न 'तमन्नाई' कहीं साक़ी पर आज महफ़िल में चले आए हैं हम जाम के साथ