जज़्बा-ए-इश्क़ अगर दिल में न पैदा होता मैं समझता हूँ मिरे हक़ में ये अच्छा होता इस क़दर शिद्दत-ए-ग़म पर तो यही लाज़िम था दिल न होता मिरा पत्थर का कलेजा होता बे-ख़ुदी है कि तिरी बज़्म में ले आई है होश होता तो यहाँ किस लिए रुस्वा होता इक नज़र देख के कुछ और बढ़ा दी वहशत इस से अच्छा तो यही था कि न देखा होता मुझ को मंज़ूर न थी अपनी ही शोहरत वर्ना मैं तो वो था कि मिरा अर्श पे चर्चा होता ज़ीस्त भी मौत भी दोनों के तुम्हीं हो मालिक मुंसिफ़ी ये थी कि हक़ एक पे मेरा होता कुछ हक़ीक़त न सही हुस्न-ए-अक़ीदत ही सही 'नूर' जीने के लिए कुछ तो सहारा होता