जज़्बों में पहले जैसी सदाक़त नहीं रही अब दरमियाँ हमारे मोहब्बत नहीं रही भूली हुई हूँ कब से मैं ख़ुद को बताऊँ क्या अब तुझ को याद करने की आदत नहीं रही कैसा समाँ है कैसी ये फ़स्ल-ए-बहार है शहर-ए-वफ़ा के फूलों में निकहत नहीं रही वो बुझ गई सितारा-अदा आँख कब की दोस्त दिल में किसी के प्यार की हसरत नहीं रही तेरी वफ़ा ने ऐसा सबक़ दे दिया मुझे मुझ को किसी भी ज़ात से नफ़रत नहीं रही ऐ 'हादिया' शुऊर-ए-मोहब्बत जिसे दिया अब वो ही कह रहा है कि उल्फ़त नहीं रही