ज़ख़्मों के दहन भर दे ख़ंजर के निशाँ ले जा बे-सम्त सदाओं की रिफ़अत का गुमाँ ले जा एहसास-ए-बसीरत में इबरत का समाँ ले जा उजड़ी हुई बस्ती से बुनियाद-ए-मकाँ ले जा शहरों की फ़ज़ाओं में लाशों का तअ'फ़्फ़ुन है जंगल की हवा आ जा जिस्मों का धुआँ ले जा है और अभी बाक़ी तारीक सफ़र शब का उगने दे नया सूरज फिर चाहे जहाँ ले जा जलती हुई रातों का बुझता हुआ मंज़र हूँ घर आ के कभी 'आजिज़' मुझ से ये समाँ ले जा