जल बुझा हूँ मैं मगर सारा जहाँ ताक में है कोई तासीर तो मौजूद मिरी ख़ाक में है खेंचती रहती है हर लम्हा मुझे अपनी तरफ़ जाने क्या चीज़ है जो पर्दा-ए-अफ़्लाक में है कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में कूज़ा-गर कैसा करिश्मा तिरे इस चाक में है कैसे ठहरूँ कि किसी शहर से मिलता ही नहीं एक नक़्शा जो मिरे दीदा-ए-नमनाक में है ये इलाक़ा भी मगर दिल ही के ताबे ठहरा हम समझते थे अमाँ गोशा-ए-इदराक में है क़त्ल होते हैं यहाँ नारा-ए-ऐलान के साथ वज़्अ-दारी तो अभी आलम-ए-सफ़्फ़ाक में है कितनी चीज़ों के भला नाम तुझे गिनवाऊँ सारी दुनिया ही तो शामिल मिरी इम्लाक में है राएगाँ कोई भी शय होती नहीं है 'आलम' ग़ौर से देखिए क्या क्या ख़स-ओ-ख़ाशाक में है