ज़माने के तग़ाफ़ुल से जो हर लम्हा बिखरती है

ज़माने के तग़ाफ़ुल से जो हर लम्हा बिखरती है
सुना है आप के दर पर वही क़िस्मत सँवरती है

तसव्वुर से ही जिस के आज-कल ये रूह डरती है
नज़र के सामने या-रब वही सूरत उभरती है

कमी होगी न हरगिज़ आसमाँ तेरे ख़ज़ाने में
ज़रा सी चाँदनी गर मेरे आँगन में उतरती है

कई दरियाओं का पानी यक़ीनन उस से कम होगा
मुसीबत जिस क़दर आँसू मिरी आँखों में भरती है

वहीं अपनी भी कश्ती आ गई तूफ़ाँ की शिद्दत से
जहाँ पर ज़िंदगी बर्बाद हो कर आह भरती है

महकते थे मिरे दिन रात जिस की मेज़बानी से
वो ख़ुश्बू आज-कल जाने कहाँ परवाज़ करती है

सुनाएँ क्या हम अपने हाल को बस मुख़्तसर 'तश्ना'
हमारी ज़िंदगी भी आज-कल यूँही गुज़रती है


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