ज़माने में किसी के हाथ में पत्थर नहीं मिलता मगर महफ़ूज़ कोई जिस्म कोई सर नहीं मिलता है अपने आप में सिमटा हुआ हर शख़्स दुनिया में कोई खुल कर नहीं मिलता कोई हँस कर नहीं मिलता सकूँ के वास्ते हर सू भटकती फिर रही दुनिया दवा हो कारगर जिस की वो चारागर नहीं मिलता गुनह कितने किए अहल-ए-सियासत ने मगर फिर भी कोई इल्ज़ाम अब तक तो किसी के सर नहीं मिलता जहाँ पर दो घड़ी 'परवेज़' हम आराम कर लेते तुम्हारे शह्र में ऐसा कोई भी घर नहीं मिलता