जमी हूँ बर्फ़ की सूरत पिघलना चाहती हूँ मैं हिसार-ए-ज़ात से बाहर निकलना चाहती हूँ मैं दिया बन कर निहाँ-ख़ानों में जलना चाहती हूँ मैं किसी की रूह के साँचे में ढलना चाहती हूँ मैं जुदा होती ही आई है हमेशा 'हीर' राँझे से अब इस रस्म-ए-मोहब्बत को बदलना चाहती हूँ मैं मैं जिस मिट्टी से आई हूँ उसी मिट्टी में मिलने तक हज़ारों बार गिर कर भी सँभलना चाहती हूँ मैं ख़िज़ाँ के डर से घबरा कर पलटना चाहता है वो हर इक मौसम में जिस के साथ चलना चाहती हूँ मैं मिटा डाला है यक-जेहती को इस फ़िरक़ा-परस्ती ने किसी सूरत भी ये सूरत बदलना चाहती हूँ मैं मैं चाहती हूँ कि बन जाऊँ किसी की आरज़ू 'मीना' किसी का ख़्वाब बन कर दिल में पलना चाहती हूँ मैं