ज़मीं के दोष पे इक मुनफ़रिद किताब हूँ मैं ये और बात है बे-नाम इंतिसाब हूँ मैं कभी ये वहम कि ख़ालिक़-नुमा है मेरा वजूद कभी ख़याल कि धोका हूँ इक सराब हूँ मैं मिरा क़ुसूर जो मेरी नियाज़-मंदी है तो इस के बाद हक़ीक़त में ला-जवाब हूँ मैं हैं क़द्र-दाँ के तजस्सुस में मेरे गौहर-ए-फ़िक्र समुंदरों की तरह मह्व-ए-पेच-ओ-ताब हूँ मैं जगाया महशर-ए-हस्ती ने जब तो ऐसा लगा कभी जो देखा था मैं ने वो एक ख़्वाब हूँ मैं पढ़ो कि हाल की तारीख़ है रक़म 'हसरत' जली हुरूफ़ में रूदाद-ए-इंक़लाब हूँ मैं