ज़मीं लपेटता है आसमाँ समेटता है कहाँ की बात को ये दिल कहाँ समेटता है हुसैन रिफ़अतें तक़्सीम करता है अब भी यज़ीद आज भी रुस्वाइयाँ समेटता है वहीं पे गर्दिशें रुक सकती हैं ज़माने की वो जस्त भरता है और पर जहाँ समेटता है उसे बताना कि तुम जब कहीं भी टूटते हो तुम्हारी किर्चियाँ कोई यहाँ समेटता है किसी में 'नादिया' जुज़ इश्क़ इतना ज़र्फ़ कहाँ है कौन बिखरे दिलों को जो याँ समेटता है