ज़मीं ठहर न सकी और न आसमाँ ठहरा मिरा ही ज़ौक़-ए-जुनूँ मेरा पासबाँ ठहरा लगाई जिस के लिए तख़्त-ओ-ताज को ठोकर उसी की बज़्म में मैं मिस्ल-ए-दास्ताँ ठहरा हमारा नक़्श-ए-क़दम है वहाँ वहाँ रौशन वफ़ा की राह में थक कर जहाँ जहाँ ठहरा लिपट के दामन-ए-गुल से कहा ये बुलबुल ने निगाह-ए-बर्क़ में मेरा ही आशियाँ ठहरा पढ़ा सभी ने उसे पर समझ सका न कोई किताब-ए-ज़ीस्त का हर हर्फ़ राएगाँ ठहरा जुनून-ए-इश्क़ में कुछ भी ख़बर नहीं मुझ को न जाने कौन सी मंज़िल पे कारवाँ ठहरा मैं जिस को ग़ैर समझता रहा सदा 'हस्सान' हर एक राज़ का मेरे वो राज़दाँ ठहरा