जाते हुए नहीं रहा फिर भी हमारे ध्यान में देखी भी हम ने मछलियाँ शीशे के मर्तबान में पहले भी अपनी झोलियाँ झाड़ कर उठ गए थे हम ऐसी ही एक रात थी ऐसी ही दास्तान में साथ ज़ईफ़ बाप के लग गईं काम-काज पर गहने छुपा के लड़कियाँ दादी के पान-दान में घंटी बजा के भागते बच्चों को थोड़ी इल्म है रहता नहीं है कोई भी आदमी इस मकान में या'नी मजाल कुछ नहीं ज़र्रों के इज्तिमा की या'नी सभी मह-ओ-नुजूम एक ही ख़ानदान में इतना भी मुख़्तलिफ़ नहीं मेरा तुम्हारा तजरबा जैसे कि तुम मुक़ीम हो और किसी जहान में