ज़ुल्फ़-ए-जानाँ पे तबीअत मिरी लहराई है साँप के मुँह में मुझे मेरी क़ज़ा लाई है आज मय-ख़ाने पे घनघोर घटा छाई है एक दुनिया है कि पीने को उमड आई है ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग का है अक्स ये पैमाने में या परी कोई ये शीशे में उतर आई है तू बता नावक-ए-जानाँ तिरी क्या है नीयत ख़ंजर-ए-यार ने तो सर की क़सम खाई है हूर ओ ग़िल्माँ मिरी आँखों में समाएँ क्यूँ कर किस में तेरी सी अदा तेरी सी रानाई है कुछ मुदावा न हुआ तुम से मरीज़-ए-ग़म का क्या इसी बरते पे दावा-ए-मसीहाई है सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-शाहीदाँ की झलक है इस में दस्त-ए-क़ातिल पे ग़ज़ब रंग हिना लाई है