न होने का गुमाँ रक्खा हुआ है कि होने में ज़ियाँ रक्खा हुआ है ज़मीं के जिस्म पर क़ब्रें नहीं हैं ख़याल-ए-रफ़्तगाँ रक्खा हुआ है सर-ए-मिज़्गाँ मिरे आँसू नहीं हैं सुलूक-ए-दोस्ताँ रक्खा हुआ है यहाँ जो इक चराग़-ए-ज़िंदगी था न जाने अब कहाँ रक्खा हुआ है ये दुनिया इक तिलिस्म-ए-आब-ओ-गिल है यहाँ सब राएगाँ रक्खा हुआ है