ज़ुल्मत ब-हर-मक़ाम ख़िलाफ़-ए-तलब मिली दिन का सुराग़ ढूँडने वालों को शब मिली ऐ दोस्त तेरे हुस्न-ए-इनायत की ख़ैर हो ये आगही हमें तिरे ग़म के सबब मिली याद-ए-ग़ज़ल-रुख़ाँ भी ख़याल-ए-मआ'श भी आसूदगी दयार-ए-तमन्ना में कब मिली निकले थे तीरगी के मुसलसल फ़रेब से जब रौशनी मिली तो हमें जाँ-ब-लब मिली क़िस्सा तिरी वफ़ा का सितम रोज़गार के जो शय हमें मिली है वही मुंतख़ब मिली फुर्सत-तलब मसाइल-ए-अस्र-ए-रवाँ भी थे लेकिन तिरे ख़याल से फ़ुर्सत ही कब मिली सुल्तान-'रश्क' ख़ुद से शनासाई के लिए देखेंगे ख़्वाब फ़ुर्सत-ए-ता'बीर जब मिली