तर्ज़ मेरे रिज़्क़ की थोड़ी बदल जाने के बा'द इब्तिदा करता हूँ दिन की दिन के ढल जाने के बा'द फिर चली जाती है दरिया की खुली आग़ोश में मौज-ए-साहिल पर खड़ी दो-पल मचल जाने के बा'द मैं यूँ ही उस को भुला देने के धोके में रहा दिल ही में था वो मिरे दिल से निकल जाने के बा'द काम अपना मुँह अंधेरे ख़त्म कर लेती है रात इक सियाही सुब्ह के चेहरे पे मल जाने के बा'द घूमने फिरने दे उस को इक उदासी में अभी ख़ुद हक़ीक़त जान लेगा कुछ सँभल जाने के बा'द मो'जिज़ा फ़न का यही है और यही मेरा कमाल फिर से जी उठता हूँ इक आतिश में जल जाने के बा'द रोक रक्खा है मुझे 'शाहीं' ज़मिस्ताँ ने कहीं चल पड़ूँगा बर्फ़ थोड़ी सी पिघल जाने के बा'द