जज़्ब जलवों में हुआ ऐसा कि जल्वा बन गया मुझ को समझो शम’-ए-महफ़िल हस्ती-ए-परवाना क्या ज़र्रा ज़र्रा है जहाँ का आज रश्क-ए-आफ़्ताब फिर कोई दोहरा रहा है तूर का अफ़्साना क्या जान कर मैं उन के क़दमों में गिरा हूँ झूम कर मस्लहत थी 'इश्क़ की ये लग़्ज़िश-ए-मस्ताना क्या क्या ज़रूरत है सुने क्यों वो मिरी रूदाद-ए-ग़म हुस्न की महफ़िल में दर्द-ए-इश्क़ का अफ़्साना क्या अल्लह अल्लाह आज वो भी तो गरेबाँ-गीर हैं सुन लिया है 'साबिर'-ए-नाशाद का अफ़्साना क्या