जज़्बा-ए-शौक़ मिरा कुछ तो बढ़ाते जाते चंद बातें ही दिलासे की सुनाते जाते तक़्वियत कुछ तो मोहब्बत को मिरी मिल जाती कुछ तो चाहत-भरा अंदाज़ दिखाते जाते मैं भी होंटों पे यहाँ प्यास लिए बैठा हूँ कोई पैमाना मोहब्बत का बढ़ाते जाते लज़्ज़त-ए-इश्क़ का एहसास तुम्हें भी होता कर्ब-ए-तन्हाई में जब अश्क बहाते जाते ग़म की तारीकी से छुटकारे की सूरत बनती शादमानी का दिया दिल में जलाते जाते मैं अकेला ही नहीं और भी हैं मेरी तरह उस के कूचे में नज़र आएँगे आते-जाते बच गए इश्क़ के आज़ार से 'अजमल' वर्ना तुम लहू दिल का शब-ए-वस्ल जलाते जाते