जज़्बात में डूबी हुई ये रात है कुछ और बे-ताब निगाहों की मुलाक़ात है कुछ और दीवानों के सर पर है तिरा रेशमी साया ऐ ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम तिरी बात है कुछ और तू मय से भरा जाम बढ़ाता है सभी को साक़ी तिरा अंदाज़-ए-मुसावात है कुछ और हर उ'ज़्व-ए-बदन से वो किरन फूट रही है शरमाए क़मर भी कि तिरी ज़ात है कुछ और परदेस तुझे छोड़ के जाता न कभी मैं ऐ जान-ए-वफ़ा सूरत-ए-हालात है कुछ और खुलते हैं यहाँ राज़ अबद और अज़ल के नज़रों में मिरी बज़्म-ए-ख़ुराफ़ात है कुछ और माना कि सर-ए-बज़्म वो करते हैं तग़ाफ़ुल चेहरे पे मगर शोख़ी-ए-जज़्बात है कुछ और बस हर्फ़-ए-दुआ कहते हैं होती नहीं मक़्बूल जो क़ल्ब से निकले वो मुनाजात है कुछ और रक्खूँगा सलीक़े से निहाँ-ख़ाना-ए-दिल में मेरे लिए ज़ख़्मों की ये सौग़ात है कुछ और सावन को भी देखा है बरसते हुए ऐ 'शाद' आँखों से जो होती है वो बरसात है कुछ और