काबा-ए-रुख़्सार की तेरे ज़ियारत चाहिए मुझ को तेरा हौसला तेरी इजाज़त चाहिए मैं हमेशा ये दुआ करता हूँ ऐ परवरदिगार मेरे बेटों को भी मुझ जैसी सख़ावत चाहिए सर्द मौसम का सहा जाता नहीं मुझ से अज़ाब बर्फ़ जैसी रात को तेरी हरारत चाहिए ज़िंदगी का लुत्फ़ हासिल इस तरह होता नहीं दिल में तेरे जज़्बा-ए-सब्र-ओ-क़नाअत चाहिए पूरा यूँ ही शहर क़ब्रिस्तान जैसा हो गया ज़ालिमों को और कितनी अब हलाकत चाहिए कौसर-ओ-तसनीम तो हैं अहल-ए-जन्नत के लिए ऐ मिरे साक़ी मुझे जाम-ए-शहादत चाहिए जिस की हर आवाज़ पर हर शख़्स हम-आवाज़ हो आज अपनी क़ौम को ऐसी क़यादत चाहिए मैं भी बसना चाहता हूँ आप ही के शहर में मुझ को इस में घर बनाने की इजाज़त चाहिए बात सच कहना कोई आसाँ नहीं इस दौर में लब हिलाने की सर-ए-महफ़िल जसारत चाहिए 'शाद' क्यों उस का नुमाइंदा मैं तुझ को मान लूँ उस का लिक्खा कोई ख़त उस की इबारत चाहिए