जिधर हो ज़िंदगी मुश्किल उधर नहीं आते अजल से पहले मिरे चारा-गर नहीं आते बना हुआ है मिरा शहर क़त्ल-गाह कोई पलट के माओं के लख़्त-ए-जिगर नहीं आते उठाए अपनों की लाशें जो तुम हो नौहा-कुनाँ मिरे शहीद तुम्हें क्यूँ नज़र नहीं आते न इंतिज़ार करो इन का ऐ अज़ा-दारो शहीद जाते हैं जन्नत को घर नहीं आते मैं नौहे कब नहीं लिखता हूँ रफ़्तगाँ के 'ज़फ़र' कब अश्क मिस्ल-ए-हुरूफ़-ए-हुनर नहीं आते