जिधर मुँह अपने को वो ईसी-ए-ज़माँ फेरे तो इक निगाह से मर्दों के तन में जाँ फेरे वो तो है काफ़िर-ए-रहज़न कि इक इशारे में जो सम्त का'बे के जाता हो कारवाँ फेरे तिरी जफ़ाओं से यूँ दिल के फेरने के लिए कहे हज़ार कोई तुझ से पर कहाँ फेरे कर ऐ अज़ीज़ हर इक नेक-ओ-बद की दिल में राह न कर वो काम कि मुँह तुझ से यक जहाँ फेरे नज़र न आवे कभू एक बार अगर उस के करूँ हज़ार मैं कूचे के दरमियाँ फेरे