जीना है अगर तुझ को ख़ूगर हो तमन्ना का अंदाज़ ख़लीली है मस्लक है ये मूसा का बे-आब-ए-तमन्ना दिल जज़्बात से आरी है मंज़र कभी देखा है सूखे हुए दरिया का महबूब है मय-कश को रिंदों की बग़ल में है लेकिन ये तक़र्रुब है बादा ही से मीना का था जज़्ब-ओ-कशिश जिस में वो शम्अ-ए-तजल्ली थी ज़ाएर कोई क्यूँकर हो अब वादी-ए-सीना का चढ़ते हुए सूरज के तेवर कभी देखे हैं आग़ाज़ है आईना अंजाम-ए-तमन्ना का इस्लाह की दुनिया में उस दिल का ख़ुदा-हाफ़िज़ पैदा न हुआ जिस में एहसास ही तौबा का सीखा है 'अमीं' मैं ने हातिफ़ से ग़ज़ल कहना ये नग़्मा-ए-जाँ-परवर है बुलबुल-ए-सिदरा का