जीने के लिए जो मर रहे हैं आग़ाज़-ए-हयात कर रहे हैं है हुस्न का नाम मुफ़्त बदनाम लोग अपनी तलब में मर रहे हैं ग़ुंचों की तरह खिले थे कुछ लोग किरनों की तरह बिखर रहे हैं है नक़्श-ए-क़दम पे नक़्श-ए-ज़ंजीर दीवाने जिधर गुज़र रहे हैं सुनता हूँ कि आप के वफ़ादार अंजाम-ए-वफ़ा से डर रहे हैं साहिल को भी छोड़ते नहीं लोग कश्ती पे भी पाँव धर रहे हैं अब दश्त में नर्म-रौ हवा से कुछ नक़्श-ए-क़दम निखर रहे हैं रूहों में नई सहर के बाइ'स ज़ेहनों के नशे उतर रहे हैं हम जैसे तमाम नाम-लेवा धब्बा तिरे नाम पर रहे हैं ख़ुशबू से लदी बहार में भी हम दर्द से बहरा-वर रहे हैं हर दौर के फ़न-शनास 'दानिश' नाकाम-ए-हुसूल-ए-ज़र रहे हैं