जिस जगह दौर-ए-जाम होता है वाँ ये आजिज़ मुदाम होता है हम तो इक हर्फ़ के नहीं मम्नून कैसा ख़त्त-ओ-पयाम होता है तेग़ नाकामों पे न हर दम खींच इक करिश्मे में काम होता है पूछ मत आह आशिक़ों की मआश रोज़ उन का भी शाम होता है ज़ख़्म बिन ग़म बिन और ग़ुस्सा बिन अपना खाना हराम होता है शैख़ की सी ही शक्ल है शैतान जिस पे शब एहतेलाम होता है क़त्ल को मैं कहा तो उठ बोला आज कल सुब्ह-ओ-शाम होता है आख़िर आऊँगा ना'श पर अब आह कि ये आशिक़ तमाम होता है 'मीर' साहब भी उस के हाँ थे पर जैसे कोई ग़ुलाम होता है