जिस की ख़ातिर उम्र गँवाई इक दुनिया को भूली मैं जी कहता था उस से कह दूँ लेकिन कैसे कहती मैं मेरी ज़ात का जिस की नज़र से इतना गहरा रिश्ता है उस की आँख समुंदर जैसी हरी-भरी इक धरती है बंद किवाड़ों पर इक जानी पहचानी दस्तक जो सुनी यूँही डूपट्टा छोड़ के भागी नंगे पाँव ही पगली मैं किस का चेहरा देख लिया था सोते सोते बचपन में ख़्वाबों की ख़ुश-रंग नदी में बरसों डूबी उभरी में सब से बड़ा ये जुर्म था मेरा इसी लिए बदनाम हुई सारी दुनिया जहाँ गिरी थी उसी मोड़ पर संभली मैं ये भी सच है ऐसे कब तक मिल-जुल कर चल सकते थे कुछ तो वो भी था हरजाई थोड़ी सी थी ज़िद्दी मैं यूँही शायद जाते जाते उस ने इधर भी देखा हो जाड़ों का मौसम था लेकिन सर से पा तक भीगी मैं मेरे लिए तो जीने का ये एक सहारा काफ़ी है कोई चाहे कुछ भी कह ले तेरी नज़र में अच्छी मैं मेरी मजबूरी ने 'शबनम' जिस को बद-ज़न कर डाला उस की क़सम थी जान से प्यारी झूटी कैसे खाती मैं