मुंसिफ़ हो भला हुक्म सुना क्यों नहीं देते मुजरिम हूँ अगर मैं तो सज़ा क्यों नहीं देते दीवार खड़ी हो गई नफ़रत की बहर-सू अरबाब-ए-वफ़ा इस को गिरा क्यों नहीं देते वो ख़ूगर-ए-दुश्नाम जो अफ़्लाक-नशीं हैं औक़ात कभी उन की बता क्यों नहीं देते कुछ देर के ही वास्ते होगा तो उजाला इन झोंपड़ों में आग लगा क्यों नहीं देते फिर कोई सुनामी की सदा गूँज रही है ख़्वाबीदा हैं जो लोग जगा क्यों नहीं देते रटती रही बेटे की जुदाई पे शब-ओ-रोज़ तुम शक्ल ज़रा माँ को दिखा क्यों नहीं देते इस से तो फ़क़त ज़ख़्म हरा होता है 'अंजुम' फ़र्सूदा हिकायात भुला क्यों नहीं देते