जिस की सिफ़ात क़हर-ओ-ग़ज़ब के सिवा नहीं वाइज़ का वो ख़ुदा है हमारा ख़ुदा नहीं चारागरी का करते थे दा'वा बहुत मगर तुम से इलाज-ए-दर्द-ए-मोहब्बत हुआ नहीं क्या जाने अब के आई है कैसी ये फ़स्ल-ए-गुल पहली सी वो चमन की मोअ'त्तर फ़ज़ा नहीं ऐ चर्ख़ तू ने सारे जहाँ को किया तबाह अफ़्सोस तेरे हाथों से कोई बचा नहीं बहर-ए-अलम में रोज़ है तूफ़ाँ का सामना टूटी है नाव पस्त मगर हौसला नहीं भूले से भी न करना ज़माने का ए'तिबार सब कुछ है इस जहान में लेकिन वफ़ा नहीं कश्ती को ख़ौफ़ क्या हो तलातुम का ऐ 'रियाज़' हाफ़िज़ मिरा ख़ुदा है अगर नाख़ुदा नहीं