जो हुस्न तुझ में है वो अख़्तर-ओ-क़मर में नहीं तिरी मिसाल का कोई मिरी नज़र में नहीं ये माना रात हुई ख़त्म सुब्ह तो आई सहर का हुस्न मगर आज क्यों सहर में नहीं सबब जो बात बनी उस की सरफ़राज़ी का वो बात ज़र्रा बराबर भी राहबर में नहीं मता-ए-दर्द अता कर ऐ नावक-ए-मिज़्गाँ चुभन वो पहली सी मेरे दिल-ओ-जिगर में नहीं कमाल-ए-अज़्म की हमराह रौशनी है 'रियाज़' किसी तरह का भी खटका मुझे सफ़र में नहीं