जिस में इक सहरा था इक दीवाना था सोच रहा हूँ वो किस का अफ़्साना था ख़्वाब तो मुझ को मेले तक ले आए थे नींद के बाहर तो वो ही वीराना था चादर के बाहर बेदारी बैठी थी ऐसे में क्या पाँव मुझे फैलाना था एक अकेली नज़्म थी पूरे सफ़्हे पर नज़्म था बाक़ी पर जो वो वीराना था रात बना देती थी इक पल यादों का माज़ी तक यूँ मेरा आना जाना था 'आतिश' तुझ को नाज़ बहुत था सूरज पर शाम के ढलते ही जिस को बुझ जाना था