जिस सुकूत-ए-मुस्तक़िल पर तुझ को इतना नाज़ है बे-ख़बर वो भी तो रुस्वाई का इक अंदाज़ है आप इसे हर्फ़-ए-जुनूँ समझें कि हर्फ़-ए-आगही ये बहर-सूरत शुऊर-ए-दर्द की आवाज़ है कितने ज़ख़्मों का भरम इक बे-ज़बानी की अदा कितनी आवाज़ों का पर्दा इक सुकूत-ए-नाज़ है लब ही लब की भीड़ है मय-ख़ाना-ए-हस्ती में आज तिश्नगी ही तिश्नगी अब वक़्त की आवाज़ है तुम को होता है जो काँटों पर भी फूलों का गुमाँ वो भी शाइस्ता-निगाही का मिरी ए'जाज़ है क्या ख़बर कब छीन ले मुझ से तिरे ग़म की असास इन दिनों कुछ जारेहाना वक़्त का अंदाज़ है इस तरह लिपटी है दिल से तेरी यादों की लकीर जैसे ये भी रौशनी-ए-ज़िंदगी का राज़ है जिस ने दीवाना बना रक्खा है सारे शहर को वो तकल्लुम का तिरे सँभला हुआ अंदाज़ है बन पड़े ऐ 'नाज़िम'-ए-महज़ूँ तो चल उस के हुज़ूर शहर में बस इक वही ईसा-नफ़स दम-साज़ है