जिस तरह की हैं ये दीवारें ये दर जैसा भी है सर छुपाने को मयस्सर तो है घर जैसा भी है उस को मुझ से मुझ को उस से निस्बतें हैं बे-शुमार मेरी चाहत का है मेहवर ये नगर जैसा भी है चल पड़ा हूँ शौक़-ए-बे-परवा को मुर्शिद मान कर रास्ता पुर-पेच है या पुर-ख़तर जैसा भी है सब गवारा है थकन सारी दुखन सारी चुभन एक ख़ुश्बू के लिए है ये सफ़र जैसा भी है वो तो है मख़्सूस इक तेरी मोहब्बत के लिए तेरा 'अनवर' बा-हुनर या बे-हुनर जैसा भी है