जिसे हम दिल समझते थे वही अब दिलरुबा निकला ख़ुदा की शान है जो मुद्दई का मुद्दआ' निकला पस-ए-मुर्दन तलाशी ली फ़रिश्तों ने तो क्या निकला छुपा इक गोशा-ए-दिल में ख़याल-ए-दिल-रुबा निकला तह-ए-शमशीर भी भूले न हम क़ातिल के एहसाँ को चली तलवार रुक रुक कर ज़बाँ से मर्हबा निकला मेरे अशआ'र सुन के ख़ुश हुए पर वाए रे क़िस्मत ज़बाँ से मर्हबा कहने को थे मर बे-हया निकला फ़ना फ़िल्लाह जब 'असग़र' हुए तो ये खुला उक़्दा जिसे हम बुत समझते थे वही अपना ख़ुदा निकला